क्या भारत की राजनीति ने अपना धर्म चुन लिया है?

संविधान में विधान मंडल के द्विसदनीयता का प्रावधान हैं, जिस में एक ऊपरी सदन (राज्य सभा) जो भारतीय संघ के राज्य तथा केन्द्र-शासित प्रदेश का प्रतिनिधित्व करता हैं, और निचला सदन (लोक सभा) जो भारतीय जनता का प्रतिनिधित्व करता हैं, सम्मिलित हैं।

 

शासन एवं सत्ता सरकार के हाथ में होती है। संयुक्त वैधानिक बागडोर सरकार एवं संसद के दोनो सदनों, लोक सभा एवं राज्य सभा के हाथ में होती है। न्याय मण्डल शासकीय एवं वैधानिक, दोनो से स्वतंत्र होता है।

 

संविधान के अनुसार, भारत एक प्रधान, समाजवादी, धर्म-निरपेक्ष, लोकतांत्रिक राज्य है, जहां पर सरकार जनता के द्वारा चुनी जाती है। अमेरिका की तरह, भारत में भी संयुक्त सरकार होती है, लेकिन भारत में केन्द्र सरकार राज्य सरकारों की तुलना में अधिक शक्तिशाली है, जो कि ब्रिटेन की संसदीय प्रणाली पर आधारित है। बहुमत की स्थिति में न होने पर सरकार न बना पाने की दशा में अथवा विशेष संवैधानिक परिस्थिति के अंतर्गत, केन्द्र सरकार राज्य सरकार को निष्कासित कर सकती है और सीधे संयुक्त शासन लागू कर सकती है, जिसे राष्ट्रपति शासन कहा जाता है। भारत का पूरा राजनीति खेल मंत्रियों के द्वारा निर्धारित होता है। भारत एक लोकतांत्रिक और धार्मिक और सामुदायिक देश है। जहां युवाओं में चुनाव का बढ़ा वोट केंद्र भारतीय राजनीति में बना रहता है यहां चुनाव को लोकतांत्रिक पर्व की तरह बनाया जाता है। भारत में राजनीतिक राज्य में नीति करने की तरह है।राजनीति दो शब्दों का एक समूह है राज+नीति। (राज मतलब शासन और नीति मतलब उचित समय और उचित स्थान पर उचित कार्य करने कि कला) अर्थात् नीति विशेष के द्वारा शासन करना या विशेष उद्देश्य को प्राप्त करना राजनीति कहलाती है। दूसरे शब्दों में कहें तो जनता के सामाजिक एवं आर्थिक स्तर (सार्वजनिक जीवन स्तर)को ऊँचा करना राजनीति है । नागरिक स्तर पर या व्यक्तिगत स्तर पर कोई विशेष प्रकार का सिद्धान्त एवं व्यवहार राजनीति (पॉलिटिक्स) कहलाती है। अधिक संकीर्ण रूप से कहें तो शासन में पद प्राप्त करना तथा सरकारी पद का उपयोग करना राजनीति है। राजनीति में बहुत से रास्ते अपनाये जाते हैं जैसे- राजनीतिक विचारों को आगे बढ़ाना, कानून बनाना, विरोधियों के विरुद्ध युद्ध आदि शक्तियों का प्रयोग करना। राजनीति बहुत से स्तरों पर हो सकती है- गाँव की परम्परागत राजनीति से लेकर, स्थानीय सरकार, सम्प्रभुत्वपूर्ण राज्य या अन्तराष्ट्रीय स्तर पर। राजनीति का इतिहास अति प्राचीन है जिसका विवरण विश्व के सबसे प्राचीन सनातन धर्म ग्रन्थों में देखनें को मिलता है । राजनीति कि शुरूआत रामायण काल से भी अति प्राचीन है। महाभारत महाकाव्य में इसका सर्वाधिक विवरण देखने को मिलता है । चाहे वह चक्रव्यूह रचना हो या चौसर खेल में पाण्डवों को हराने कि राजनीति । अरस्तु को राजनीति का जनक कहा जाता है।शहर और रंग में जुड़ाव तो होता है. बात अगर पहचान की है तो शायद होना भी चाहिए. एक विशिष्ट लुक आता है जब किसी भी शहर की कुछ इमारतें या वहां की सार्वजनिक सुविधा के साधन एक ही रंग में ढंकी होती हैं.लंदन की बसें लाल हैं, तो बर्लिन की मेट्रो पीली. एक रंग किसी शहर की एक अलग पहचान भी बनाती हैं और उसके साथ-साथ इतिहास के कुछ सफ़हों को भी दिखाती हैं.इसके होने के कारण कभी ऐतिहासिक होते हैं और कभी पारिस्थितिक. लंदन की सड़कों पर रुकती-दौड़ती बसें साथ में कुछ इतिहास भी लिए घूमती हैं.पिछले सौ साल से अधिक समय से वहां की बसें लाल हैं. उनके मॉडल बदलते चले गए, दरवाज़े खुलने और बंद होने की तकनीक बदलती गई, उस पर सवार लोग पैसेंजर से कस्टमर बन गए और काला कोट पहनकर खड़े टिकट कंडक्टर की जगह पीले रंग के कार्ड रीडर लग गए. लेकिन बसों का रंग वही रहा… लाल, जिसे लंदन ट्रांसपोर्ट ने 1933 में एक निजी परिवहन कंपनी से अपनाया था. More in भारत : सरकार ने माना, क़ानून की सख़्ती के बावजूद कम नहीं हुई सड़क हादसों में मरने वालों की संख्यातमिलनाडु में भारी बारिश से दीवार गिरने से 17 लोगों की मौत, इरोड ज़िले में बाढ़ का अलर्ट जारीराजस्थान: छह साल की बच्ची के बलात्कार और हत्या मामले में एक गिरफ़्तारहम बुलेट ट्रेन परियोजना की समीक्षा करेंगे: उद्धव ठाकरेशौकत आपा ज़िंदाबाद…केंद्र सरकार को किसान की परिभाषा और किसान परिवारों की संख्या के बारे में स्पष्ट जानकारी नहीं अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों के मेयर बदलने से नीतियां ज़रूर बदलीं, खिड़कियों के खुलने पर भी पाबंदी लगी, लेकिन रंग नहीं बदले.अब जब लेबर पार्टी के सादिक़ ख़ान मेयर बने हैं तो बोरिस जॉनसन के ज़माने की बसें और नीतियां दोनों बदलेंगी, लेकिन शायद ही रंग बदले.अगर बदल जाए तो न जाने उन सैकड़ों छोटे-छोटे कलाकारों का क्या होगा जो एक सफ़ेद काग़ज़ पर अगर सिर्फ़ एक सड़क, एक लाल बस और कुछ इमारतें खींच दे तो देखने वाला झट से कह दे ‘लंदन’.बस के बगल या पीछे या किसी मोड़ पर अगर लाल रंग का ही फोन बूथ भी बना दे तो फिर बची-खुची आशंका भी दूर.अब अगर ये रंग बदल जाए तो तस्वीर दिखाना भी मुश्किल हो जाएगा और देखना भी, कलाकार की कल्पना भी तंज़ हो जाएगी और कला की पहचान भी. शहर की पहचान भी बदल जाएगी.London Reutersलंदन शहर. (फोटो: रॉयटर्स)पुरानी तस्वीरों पर नए रंग चढ़ाने होंगे और नए शहर में पुराने रंग के इतिहास को संग्रहालयों में ढूंढना पड़ेगा. वैसे, फोन बूथ अभी भी सड़क किनारे इतिहास, शहर और शहर की सेक्स लाइफ़ के इश्तिहारों का अभिलेखागार बने खड़े हैं.भारत तो इतिहास और रंगों का देश है. जहां ईश्वर या अल्लाह को ही रंगरेज़ कहा जाए, वहां रंगों की अहमियत पर क्या बोलना. माता की चुनरी लाल, शिव का कंठ नीला, सरस्वती की साड़ी पीली.अलग-अलग रिवाज़ों के अलग-अलग रंग. अलग-अलग रंगों की अलग-अलग परंपरा. राजनीति भी इनसे अछूती नहीं है. चुनावी राजनीति भले ही लाल और भगवा के बीच जमकर आमने-सामने न हुई हो लेकिन वैचारिक ध्रुव मुख्यतः इन्हीं दो रंगों से बनी है.रवीश कुमार ने बड़े अंदाज़ से ‘इश्क़ में शहर होना’ बतलाया. एक नज़र यूं ही फेर लेते हैं कि शहर में रंग होना कैसा दिखता है.छोटे शहरों में अब रंगों का भरमार है. इमारतें रूपा, एयरटेल और ओप्पो के बैनर और बिल बोर्डों से पटी पड़ी हैं. बिजली के खंभों पर तारें कम और रंग-बिरंगे नोटिस बोर्ड ज़्यादा नज़र आते हैं.नया कबाब सेंटर, गुप्ता स्वीट्स और छह सप्ताह में धारा प्रवाह अंग्रेज़ी बोलने का करंट पूरे शहर में दौड़-सा गया है.घरों के एक तरफ़ की लंबी दीवारों पर कभी अंबुजा सीमेंट का बाहुबली दिखता है तो कभी केंट का प्रचार करतीं हुईं हेमा मालिनी की भरोसेमंद मुस्कान. रोटी, कपड़ा और मकान में अगर मोबाइल जोड़ दें, तो आजकल के शहरों के इश्तिहारों का हाल बयां हो जाए.बड़े शहर कुछ अलग हैं. दिल्ली की इमारतों का इतिहास शाही है और अंदाज़ भी. लुटियंस दिल्ली के नए मेट्रो स्टेशन भी पुराने पत्थरों की याद दिलाते हैं.और अब हमारे पास दिल्ली की सफ़ेद मेट्रो भी है जो फ़िल्मों में दूर से लिए हुए शॉट्स में बेहद हसीन भी लगती है. अभी तक तो सफ़ेद है और शायद आगे भी वैसी ही रहे लेकिन हमारे यहां का मिज़ाज़ कुछ ज़्यादा ही रंगों से सराबोर है. इस रंगीन मिज़ाज़ का असर शहरों पर भी दिखता है. राजनीति का घोल रंगों को गाढ़ा भी बना देता है और बेमानी, बदरंग भी.Delhi Metro DMRCदिल्ली मेट्रो. (फोटो साभार: दिल्ली मेट्रो रेल कॉरपोरेशन)उम्मीद है कि कुछ नियम तो होंगे सरकार में कि राजनीतिक पार्टियों के बदलने से शहर में क्या बदलना जायज़ है और क्या नहीं. वैसे लगता नहीं है कि इन सब मामलों के लिए ऐसा कोई सक्रिय क़ानून है भी. इसीलिए जो दिख रहा है उसी के आधार पर लिख रहा हूं.पार्टियां और सरकारें बदलती हैं तो सिर्फ़ नुक्कड़ और चौराहों पर लगे इश्तिहार नहीं बदल जाते बल्कि सारे के सारे शहर की पोशाक बदल जाती है. हर जगह नहीं, लेकिन जहां होता है वहां ये बदलाव सारी सीमाओं को पार कर डंके की चोट पर होता है.कलकत्ता पर नीला आसमान छा जाता है तो उत्तर प्रदेश की सड़कों के बगल में ईंट और पत्थर के हाथी दिखने लगते हैं. पढ़ा था पहले कहीं कि जब उत्तर प्रदेश में सरकार बदली थी तो लखनऊ की कुछ बड़े हाथियों पर सफ़ेद चादर डलवा दिए गए थे. पुष्टि नहीं कर सकता क्योंकि ख़ुद देखा नहीं.हाथी की सवारी जब थमी तो साइकिल का ज़माना आया. भारत के बाहर के मुल्कों में भी साइकिल का ज़माना आया है, किसी राजनीतिक चिह्न के तहत नहीं बल्कि पर्यावरण और शारीरिक फिटनेस के अभिप्राय से.Ambedkar Park Lucknow Reutersलखनऊ का आंबेडकर पार्क. (फोटो: रॉयटर्स)बर्लिन और लंदन जैसे शहरों में विगत कुछ वर्षों में बहुत सारे साइकिल लेन बने हैं. हमारे यहां भी बने जैसे नोएडा में, लेकिन रंगों ने पीछा नहीं छोड़ा!अब तक तो इमारतों पर ही रंगों का नशा था, अब ज़मीन भी रंगीन होने लगी है. बात तो क्षेत्र को हरित बनाने की थी, लेकिन पैदल पथ और साइकिल लेन लाल और हरे होने लगे.राजनीति की साइकिल कितने लोगों की ज़मीनी हालत बदल पाई ये आकलन तो अलग विषय है, पर ज़मीन का रंग ज़रूर बदल दिया.हमारे शहर हमारी राजनीति और हमारे समाज को दर्शाते हैं. शहर सामाजिक और सांस्कृतिक विधाओं और विभिन्नताओं का स्पेस कम और पैसा कमाई का ज़रिया ज़्यादा बन गया है.ख़ासकर ‘छोटे’ शहर जो अब वाक़ई छोटे रहे नहीं. एक भद्दापन झलकता है सड़कों, गलियों और मकानों पर जब वे सिर्फ़ बड़ी-बड़ी कंपनियों के विज्ञापनों का माध्यम बनकर सीमित हो गए हैं.पहले शहर में राजनीति होती थी. अब शहरों की राजनीति होती है. नीला, लाल, हरा, गेरुआ अब राजनीति के सूचक हैं और शहरों के भी. अब जब फिर से उत्तर प्रदेश की सरकार बदली है तो अंदाज़-ए-रंग भी जुदा है.

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